जज़्बात

Saturday, January 05, 2008
जज़्बात के कागज़ से मैंने बुनी थी एक पतंग
सांसों कि डोर से चाह था उसको उडाना
दूर कहीं आसमानों मैं
हवाओं का रुख मेरे हक मैं था
बरसात का अंदेशा न था

मैं और मेरी ज़िंदगी बडे खुश थे उस शाम
मेरे हाथ में पतंग कि डोर और
मेरी ज़िंदगी पकडे थी चरखा
न जाने किस जानिब से
उठा तूफान और जमकर हुई बरसात

मेरी पतंग बिखर चुकी थी
सांसों कि डोर टूट चुकी थी
मेरी ज़िंदगी तूफान के हवाले थी
अब मैं था और मेरी मायूसी
और जज्बात का कागज़ भी चुक गया था !!!

-शाहिद "अजनबी"

3 comments:

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  2. ek vyatha hai jo shabdon mein jhalaktee hai.Badhai.

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