हम हवा को गले लगाये थे
8.9.14
जितने अपने थे सब
पराए थे हम हवा को गले लगाये थे जितनी क़समें थीं सब थीं शर्मिंदा जितने वादे थे सर झुकाए थे
जितने आंसू थे सब थे बेगाने जितने मेहमां थे बिन बुलाए थे
सब किताबें पढ़ी पढाई थीं सारे किस्से सुने सुनाये थे
एक बंजर जमीं के सीने में मैंने कुछ आसमां उगाए थे
सिर्फ दो घूँट प्यास की खातिर उम्र भर धूप में नहाए थे
हाशिये पे खड़े हुए हैं हम , हमने खुद हाशिए बनाये थे
मैं अकेला उदास बैठा था , शाम ने कहकहे लगाये थे
है गलत उसको बेवफा कहना ,कहाँ हम कहाँ के धुले धुलाये थे
आज काँटों भरा मुकद्दर है, हमने गुल भी बहुत खिलाये थे
- राहत इन्दौरी
चित्र - साभार - गूगल
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