तुम्हें क्या मालूम ये शादी का घर है?

Tuesday, February 09, 2010
वो शादी का घर है
वहां बहुत काम है
तुम्हें नहीं मालूम?

क्या -क्या नहीं लगता
इक शादी का घर बनाने के लिए
कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं
तब जाके कहीं इक बड़ा सा -
नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा
शक्ल अख्तियार करता है
तुम्हें क्या मालूम।

नहीं कटा वक़्त
उठाई कलम लिखने बैठ गए
अच्छे खासे मौजू को बिगाड़ने बैठ गए
नहीं कुछ मिला
तो किसी को सुनाने बैठ गए

हद तो तब हो गयी
जब किसी का गुस्सा
किसी और पर उतारने बैठ गए

तुम्हें क्या मालूम?
बर्तन, जेवर , बेहिसाब पोशाकें
कहाँ- कहाँ से पसंद करनी होती हें ?

नहीं, फब नहीं रहा है
वो देना तो जरा
न जाने ऐसे कितने लफ्ज़
गूंजते, बस गूंजते रहते हें
तुम्हें क्या मालूम।

बस उठाई किताबें पढने लगे
कभी फिजिक्स, तो कभी मेथ्स
नहीं लगा मन
तो अदब उठा लिया

अरे तुम क्या जानो ज़िन्दगी जी के
कभी किताबों और माजी के पन्नों से
बहार निकलो
ज़िन्दगी रंगीन भी है।

तुम पन्ने ही रंगते रह जाओगे
और दूर कहीं आसमानों में
कोई इक अदद ज़िन्दगी बसा लेगा
तुम्हें क्या मालूम।

तुम्हें क्या मालूम?
होटल का ऑर्डर
खान्शामा का इंतजाम
बाजे वाले को एडवांस
और भी बहुत से
करने होते हें इंतजाम

शादी का घर है न?
तुम्हें क्या मालूम।

वहां तुम सिसकते रहते हो
कभी तड़पते रहते हो
सुना आजकल बेचैन रहते हो
कुछ नहीं मिलता
तो पागलपन ही करते रहते हो

देखो, तुम खुद ही देखो
वही पुराणी जगह बैठाकर
जहाँ सुनाया था हाले दिल
किसी को कभी

शिद्दत से लिखे जा रहे हो
जबकि जानते हो
कोई पढने वाला भी नहीं है तुम्हें
तुम्हें क्या मालूम ?


- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

2 comments:

  1. bhut shi likha hai sir...... aapne..... bilkul shi....... kisi ko kya malum,,,,, sir.... well done........ sir,, really very great n touching one.....

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