इक तवक्को

Monday, November 17, 2008
ये शाम के धुंधलके
और मुहब्बत के साये
हलकी- हलकी गहराती
ये खुबसूरत रात

छत की मुंडेर पे बैठी
मुहब्बत से लबरेज
वो मासूम सी
दुपट्टे को उमेठ्ती लड़की

सीने में इक खलिश लिए
आंखों में इक गहरा इंतजार
होठों पे बेवजह मुस्कराहट
ज़िन्दगी ने करवट बदली
यादों का दिया मचलने लगा

घर की दहलीज , सफर के रास्ते
ट्रेन की धडधड , फेरीवालों की आवाजें
और किले की दीवारें
ना जाने कब पहुँच गई वो यहाँ
ख़ुद उसको ख़बर नहीं
वो मायूस शाम 

रात की शुआओं में तब्दील हो गयी
और आँखें अब भी मुन्तजिर
इस तवक्को पे टिकी हुई
आरिज पे ढलके आंसुओं को
आएगा महबूब हथेली से समेटने ।

- शाहिद " अजनबी "

2 comments:

  1. Dear Shahid,
    Greetings From Darpan,
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    Darpan Sah 'Darshan'
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  2. wah shahid ji aapne kya likha h.
    yeh line hame bahu pasand aai.
    dupatte ko umedtiladki
    sine me ek khalish liye
    aankho me ek gahra intezaar
    hoton pe bewajah muskurahat

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