कैसे भूल जाऊं

Tuesday, April 14, 2015


18.09.2011

अपने गुज़रे हुए कल को सोचते- सोचते ऐसी जगह पहुँच गया जहाँ एक नज़्म नमूदार हो गयी। आज वही नज़्म आपके हाथों में सोंप रहा हूँ. आपके प्यार का इंतजार रहेगा -

तंगहाली की वो आइसक्रीम
चन्द रुपयों के वो तरबूज
किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट
सुबह- सुबह
पूड़ी और जलेबी की तेरी फरमाइश
मुझे आज भी याद है
कैसे भूल जाऊं

अम्मी से पहली मुलाकात
और मेरी इज्ज़त रखने के लिए
पहले से खरीदा गया तोहफा
मेरे हाथों में थमाना
ये कहते हुए कि
अम्मी को दे देना
कैसे भूल जाऊं

वो नेकियों वाली
शबे बरात कि अजीमुश्शान रात
कहते हैं
हर दुआ क़ुबूल होती है उस रात
मुहब्बत से मामूर दिल
और बारगाहे इलाही में
उट्ठे हुए हाथ
हिफाजते मुहब्बत के लिए
कैसे भूल जाऊं

कैसे भूल जाऊं
वो पाक माहे रमज़ान
सुबह सादिक का वक़्त
खुद के वक़्त की परवाह किये बगैर
सहरी के लिए मुझको जगाना
दिन भर के इंतज़ार के बाद
वो मुबारक वक्ते अफ्तारी
हर रोज मिरे लिए कुछ मीठा भेजना
कैसे भूल जाऊं

मेरा वक़्त- बे- वक़्त डांटना
क्यूँ भेजा था तुमने
कल से मत भेजना
और वहां से-
वही मखमली आवाज़ में
रुंधे हुए गले का जवाब
हो सकता है
ये आखिरी अफ्तारी हो
खा लो शाहिद
मेरे हाथों की बनी हुयी चीजें
जाने कब ये पराये हो जाएँ
कैसे भूल जाऊं.......

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी"

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