आह! रे दर्द !!!
11.10.2012
कभी- कभी क़लम का रुख
यूँ भी होता है-वो कहते हैं न
कि दर्द है
आज वाक़ई दर्द है
दर्द ने दर्द को
आज कुछ यूं कुरेदा
कि
दर्द ने कराह के कहा कि
बड़ा दर्द है
या तो बातें ही न हों ऐसी
हों तो मंजिले मक़सूद तक
सफ़र तय करें
यूं न छोड़ दें हमारा साथ
जैसे तेज़ आंधी में
शजर का पत्ता
अपने दरख़्त का छोड़ देता है
और ज़माना उसे बड़ी ख़ूबसूरती से
खिज़ां का नाम दे देता है
ऐ मुसव्विर !
जब तूने तस्वीर का खाका खींचा ही था
तो रंग भी भर देता
न भरता तो ख़ुदा कि कुदरत से
उसमें रंगों कि बारिश करा देता
खैर!!
दर्द, दर्द न रहकर
ख़लिश कि शक्ल अख्तियार कर लिया
और हम यूं ही
दर्द के हमसफ़र हो गए
और जुबाँ से यही निकला
आह! रे दर्द !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
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