राबता

Saturday, June 26, 2010
हर रोज करता हूँ मैं
इक नाकाम सी कोशिश
दिल में उम्मीद की
सौ शम्मा जलाये हुए
शायद राबता कायम हो जाये 

और सुन सकूँ
वो मिश्री सी घुली आवाज़
जब घंटों नहीं सुनाई देते थे
वो चंद मासूम से लफ्ज़
अजब आलम तारी होता था
दिल की अंजुमन में 

अब तो दिन क्या
महीनों गुजर गए
नहीं सुनी वो आवाज़
नहीं सुने वो मासूम लफ्ज़
बस बहला लिया दिल को
यूँ ही चंद नज्मेंऔर क़तात लिखके !!! 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

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